बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 29)
एक वक्त रोटी पकाते थे, दोनों वक्त खाते थे।
इस तरह सालभर से ज़्यादा झेल ले गये।
उनका लक्ष्य और काम बढ़ते गये। लेकिन अड़चन से पीछा नहीं छूटा।
गाँव में जितने आदमी थे, अपना कोई नहीं, जैसे दुश्मनों के गढ़ में रहना हो।
भाई भी अपने नहीं। बिल्लेसुर सोचते थे, क्यों एक दूसरे के लिए नहीं खड़ा होता।
जवाब कभी कुछ नहीं मिला। मुमकिन, दुनिया का असली मतलब उन्होंने लगाया हो।
फिर भी, जान रहते काम करना पड़ता है, दूसरे की मदद करनी पड़ती है, सहारा लेना पड़ता है, यह सच है।
इधर कोई ध्यान नहीं देता, यह कमज़ोरी दूर नहीं हो रही; कोई सूरत भी नज़र नहीं आ रही।
हमारे सुकरात के ज़बान न थी, पर इसकी फ़िलासफ़ी लचर न थी; सिर्फ़ कोई इसकी सुनता न था; इसे भी भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता नहीं दिखा, इसलिए यह भटकता रहा।